मेरा घर कौन-सा?

मेरी एक प्यारी सी पाठिका है रश्मि, जो उम्र में मुझसे बहुत छोटी हैं। उन्होंने मुझे लिखा —
“औरत का घर कौन-सा है?

माँ कहती हैं पराये घर जाना है, और सास कहती हैं पराये घर से आयी हो।”

दिल बहुत दुखता है। आप ही बताइए — कहाँ जाए?

उनका सवाल पढ़कर तो मैं भी सोच में पड़ गई — मेरा घर कौन-सा?

बहुत सोचने के बाद मैं भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सकी। हैरानी की बात यह थी कि घर तो हममें से किसी के पास भी अपना नहीं था — न पति के पास, न सास के पास, और न ही माँ के पास। उल्टा, हमारे पास तो दो-दो घर हैं!

पति के पास तो बस उसकी माँ का घर होता है, और ससुराल में वह हमारी तरह रह नहीं पाता। वह तो बेचारा धमकी भी नहीं दे सकता —
“ज़्यादा बोलोगी तो मायके चला जाऊँगा!”

हमारे पास तो ये हथियार भी है —
“मुझे तो ये ऊपर वाले का चक्कर लगा भाई।”

पहले सास की सास का घर, फिर सास का हुआ, जब हम सास बनेंगी तो हमारा — और जब हमारी बहू सास बनेगी, तो उसका।

पति का क्या? खाना भी हम सिर्फ़ पूछते हैं, बनाते अपनी पसंद का हैं।

घर में जितनी भी अलमारियाँ हों — ज़्यादा जगह किसके पास?

पार्टी के कपड़े, शादी के कपड़े, गरबों में नौ दिन के नौ ड्रेस, बाज़ार जाने के कपड़े — और तो और, घर के कपड़े अलग।

उनके कपड़े बस अलमारी के एक खाने से हमें घूरते रहते हैं। अब बोलिए — घर किसका?

जब ससुराल में कोई तंग करे तो कह दो —
“मायके चली जाऊँगी।”

मायके कोई तंग करे तो कह दो —
“ससुराल चली जाऊँगी।”

हैं न मज़े ही मज़े?
बस अपना समझकर रहेंगे तो हमेशा लगेगा —
मेरा घर भी मेरा, उसका घर भी मेरा।

घर की परिभाषा तलाशती,
-लता मक्कड़

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